धर्म का छोला ओढ़ती बुराइयाँँ। Religious Problems
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समस्याएँ यदि व्यक्तिगत हों तो उसका इलाज संभव है, यदि वे सामाजिक हो गई तो कुरीति बन जाती हैं इनका इलाज कठिन हो जाता है, यदि कुरीतियों ने धर्म का चोला ओढ़ तो इनका इलाज बहुत मँहगा हो जाता है, कभी कभी तो मानवता पर ही संकट बन जाता है।
धर्मो का एक मात्र उद्देश्य है प्रकृति का संरक्षण एवं मानव कल्याण जो निश्चित रूप से प्राकृतिक नियमो से ही चलते हैं। प्राकृतिक नियम वो जिसके कारण ब्राहमांड काअस्तित्व है, हमारा अस्तित्व है। अस्तित्व के सूक्ष्मतम स्वरूप मे हम सभी अव्यक्त हो जाते हैं, यही अव्यक्त स्थूल रूप में व्यक्त हो जाता है सृष्टि का प्रस्फुटन हो जाता है धर्म यही व्यक्त से अव्यक्त तक की यात्रा है, जिसके लिए हमे सभी कार्य प्राकृतिक नियमो के अनुसार ही करना पड़ेगा। यदि कोई क्रिया प्राकृतिक नियमो के विपरीत है तो वह समस्या उत्पन्न करती है वह धर्म नही हो सकता, क्योकि धर्म तो जीवन को मुक्त करता है, दुनिया की सारी समस्याए प्राकृतिक नियमो के उल्लंघन से ही होती हैं, प्राकृतिक नियमो से विचलन आडंबर को जन्म देता है जिसमे किसी का स्वार्थ छुपा हो सकता है किसी को दुःख देने का बीज छुपा हो सकता है, इसी आडंबर को हम सभी कभी कभी धर्म मानकर उसी रास्ते पर चलने लगते है तो जीवन मे विषाद उत्पन्न होने लगते है क्योकि विचलन जीवन के प्रवाह मे अवरोध उत्पन्न करता है ,दुःखी होने के बाद हम ईश्वर को दोष देने लगते हैं क्या यह सही है ? नही किन्तु हम मानेगे नही क्योकि सदियो से हम धर्म को कम आडंबर को अधिक जी रहे हैं।
इसके बहुत सारे उदाहरण अतीत से वर्तमान तक भरे पड़े हैं
वैदिक काल में स्त्रियो को पुरुषो के समान अधिकार थे सामाजिक व्यवस्था उन्नत दशा में थी लोग खुशहाल थे। समय के साथ स्त्रियो अधिकार व अवसर कम होने लगे साथ ही आडंबर एवं रूढ़िवादी परम्पराओ ने बाल विवाह , देवदासी प्रथा एवं सती प्रथा को जन्म दिया । बाल विवाह होने के कारण समाज में बाल विधवाओ की संख्या बढ़ने लगी जिसे समाज घृणा की दृष्टि से देखने लगा जिसने सती प्रथा को जन्म दे दिया ,बेटियाँ देवदासी बनाई जाने लगी जिससे मंदिरो मे व्यभिचार होने लगा धर्म के ठेकेदारो ने जीवित जलती हुई बेटियोँ के दर्द को कभी नही समझा ,बेटियोँ को उसके लिए सजा मिलने लगी जिसका जिम्मेदार उसका पिता था ,यह ऐसी सामाजिक बुराई थी जिसने धर्म का चोला ओढ़ना शुरू कर दिया था सती के मंदिर बनने लगे ,जिसे समाप्त करने के लिए राजाराम मोहन राय एवं दयानंद सरस्वती जैसे महान विभूतियो को अथक परिश्रम करने पड़े । आज यही स्थिति तीन तलाक और हलाला को लेकर है ,कुछ मौलवी इसके पक्ष मे बड़ी बेशर्मी से चीखते रहते हैं क्या उन्हे अपनी बेटी के साथ ऐसा व्यवहार अच्छा लगेगा । स्त्री एवं पुरूष दोनो को ईश्वर ने ही बनाया है तो स्त्री भोग की वस्तु कैसे बन गयी ,आप को किसी स्त्री की स्वतंत्रता को छीनने का अधिकार किसी ने दिया तो वह धर्म नही हो सकता वो जननी है उसका सम्मान करना कब सीखोगे ।कुछ तो यह कहते मिलते है यह मेरे धर्म का मामला है इसमे दखल नही दे सकते हैं, क्योकि धर्म का चोला ओढ़ा देने के बाद यह संवेदनशील मुद्दा बना दिया जाता है फिर ईलाज संभव नहीं होगा ।
चर्च मे पादरियो द्वारा यौन शोषण की खबरे अधिकतर आती रहती हैं, ननें अविवाहित होनी चाहिए नियम किसने बनाए पादरियो ने क्यो? सेवा कार्य मे बाधा न हो । सेवा कार्य हो या न हो शोषण कार्य शुरू हो गया ईश्वर के नाम पर डरा धमकाकर ईश्वर के तथाकथित बिचौलियो ने दूसरी सेवा शुरू कर दिया यह होना ही था क्योकि आप प्राकृतिक नियमो के विरुद्ध थे आपने धर्म के मूल रूप को ढंँक दिया आडंबर को ओढ़ लिया और उसी को धर्म बना दिया अब कौन विरोध करे ।
मठो एवं मंदिरो की स्थिति का क्या कहना एक सर्व सक्तिमान ईश्वर के हजारो रूप बनाकर मंदिरो मे कैद कर दिया ,जहाँ पंडे पुजारी भोली भाली जनता से कैसा व्यवहार करते हैं सर्व विदित है। मूर्ति दर्शन के नाम पर खुली लूट आस्था का आर्थिक दोहन भक्त पस्त पुजारी पंडे मस्त आश्चर्य जनक रूप से हम जैसे जैसे धार्मिक? होते जा रहे हैं समाज और अराजक होता जा रहा है ।धर्मो का यह.लक्षण तो नहीं होता तो हम कर क्या रहे हैं, धर्म समावेशी होता है और हम बँट रहे है सही अर्थो मे हम धर्म को नही पाखंड को जी रहे हैं क्योकि सदियो से हम सभी ने उसी को ही धर्म मान लिया है अब उससे विरोध कैसे करें।श्वेत प्रकाश के स्रोत (ज्ञान) पर हमने अपने अपने पसंद की पट्टी चिपका दी समय के साथ पट्टियो की संख्या बढ़ती गयी धर्मो की संख्या बढ़ती गयी और ज्ञान लुप्त होता गया हम मोती खोते गये काँच सहेजते गये । हमने ज्ञान (धर्म) के रास्ते बंद कर दिये तो यह पाखंड आप को सही दिशा में नही ले जायेगा। आज के समाज की दिशा और दशा तो यही संदेश दे रहा है।..
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